संजय मिश्र, देवरिया।
महाशिवरात्रि पर विशेष रिपोर्ट
सोहगरा धाम शिव मंदिर उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर पूर्व-दक्षिणी छोर पर बिहार राज्य के सिवान जिला के सीमा-रेखा पर स्थित है। यह मंदिर ऐतिहासिक, धार्मिक और पौराणिक महत्ता के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर की सीढ़ी एक तरफ उत्तर प्रदेश में तथा दूसरी तरफ की सीढी बिहार राज्य में पड़ती है। जहां सरयू नदी से निकली छोटी गंडक नदी (हिरण्यवती) अपनी धरा से सिंचित करती इस भूमि को सुशोभित कर छटा बिखेर रही है। इस मंदिर को बाबा हंसनाथ मंदिर भी कहा जाता है। द्वापर युगीन यह शिव मंदिर कई ऐतिहासिक तथ्यों से जुड़ा है और पौराणिक महत्ता को सुशोभित करता हुआ भक्तों के आस्था का केंद्र है।
इस अति प्राचीन शिव मंदिर में महाशिवरात्रि के अवसर और श्रावण मास में भारी मात्रा में भीड़ देखी जाती हैं हर साल भव्य मेले का भी आयोजन होता है। जिसे देखने के लिए बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश, बिहार के विभिन्न जिलों समेत पड़ोसी देश नेपाल के श्रद्धालु आते हैं और जलाभिषेक कर अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।वैसे तो साल भर श्रद्धालुओं का आना जाना लगा है। आने आने वाले भक्तों ने बताया कि सच्चे दिल से जो भी मनोकामना मानी जाती हैं उसे महादेव पूरा करते है।
मंदिर के गर्भगृह में तकरीबन 8 फीट लंबा तथा 2 फीट चौड़ा अति विशाल प्राचीन शिव लिंग विराजमान है। शिव पुराण के चतुर्थ कोटि रुद्र संहिता के अनुसार भगवान के 21 शिव लिंग है जिसमें 13वां ज्योतिर्लिंग के रूप में बाबा हंसनाथ सोहगरा धाम में विराजमान हैं तथा इस विशालकाय शिवलिंग का जिक्र शिवपुराण के 16 वे पृष्ठ व श्रीमद् भगवत के दशम स्कंध में वर्णित है। यह मंदिर सतह से 20 फिट ऊंचे टीले पर बना है। मंदिर के पांच किलोमीटर के दायरे में तमाम ऐसे पुरात्विक साक्ष्य है जो क्षेत्र में खुदाई के दौरान किसानों छोटे मोटे मंदिर व किलों के भग्नावशेष, प्राचीन मूर्तियां, तोरणद्वार, सिक्के आदि मिलते रहें हैं। जिससे इसकी महत्ता और पौराणिकता का बल मिलता है। मंदिर के मुख्यद्वार पर अशोक चिन्ह विद्यमान होने से अनुमान लगाया जा सकता है कि मंदिर का जीर्णोद्वार सम्राट अशोक ने कराया होगा।
द्वापर युग के तृतीय चरण में मध्यावली राज्य (मझौली) का राजा दैत्यराज बाणासुर था। वह शोणितपुर को अपना राजधानी बनाया। जो अपभ्रंश हो कर सोहनपुर के नाम से जाना जाता है।दैत्यराज स्वर्णहारा (सोहगरा) नामक स्थान के सेंघोर पर्वत के वीरान जंगल में भगवान शिव की तपस्या करता था। उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवान शिव स्वयंभू के रूप में प्रकट हुए और उसे महा बलशाली होने का वरदान दिया था।
पुराणों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण दैत्यराज बाणासुर ने अपनी पुत्री उषा के पूजा-अर्चना लिए करवाया था। उषा यहां प्रतिदिन भगवान शिव की उपासना के लिए आती थी। एक बार दैत्यराज की बेटी उषा सपने में श्रीकृष्ण के पौत्र अनुरुद्ध को देखा और दिल दे बैठी। वह अनिरुद्ध से विवाह करना चाहती थी। उसने अपनी सहेली चित्रलेखा को रात्रि पहर में श्रीकृष्ण के महल में भेजा। चित्रलेखा रात्रि के अंधेरे में अनिरुद्ध का अपहरण कर ले आई। अनिरुद्ध की जब नीद खुली तो चौंक गया।तब उसने पूरी बात बताई। अनिरुद्ध भी उषा की सुंदरता पर मोहित हो गया था।इसी स्थान पर दोनो ने गंधर्व विवाह किया था।
मंदिर के पुजारियों के अनुसार काशी नरेश, संतान प्राप्ति के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था और मन्नत मांगी थी।बाबा की कृपा से काशी नरेश को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई और उसका नाम हंस ध्वज रखा। कालांतर में यही राजा हंस ध्वज ने जर्जर हो चुके मंदिर का जीर्णोद्वार कराया और अपना नाम अंकित करवाया था।
