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सामाजिक न्याय और समरसता की नींव जाति आधारित जनगणना

मोहित मौर्या

समानता और समरसता की ओर बढ़ता भारत

निश्चय टाइम्स, डेस्क। भारत सामाजिक न्याय और समरसता पर आधारित एक ऐसा विशाल देश है जहां अनेक समुदाय, धर्म, पंथ और जातियों के लोग निवास करते हैं । उनकी अपनी मान्यताएं हैं, और सबके अपने जीवन जीने की पद्यति है । ऐसे में उनके प्रतिनिधित्व और जीवन का स्तर किस तरह का है, किस वर्ग विशेष में कितना पिछड़ापन बाकी है और सामाजिक रूप से उनका अभी उद्धार हुआ है अथवा नहीं, इसी का संज्ञान लेते हुये, भारत सरकार द्वारा जनगणना 2021 में जाति गणना को शामिल करने की मंजूरी दे दी है । भारत का इतिहास बताता है कि जातिगत जनगणना स्वतंत्रता के बाद बंद हो चुकी थी , इसको फिर से आरंभ करने के कई प्रयास किये गये लेकिन किन्हीं कारणों से ये कार्य शुरू नहीं हो सका। लेकिन इधर कुछ वर्षों से विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र के विद्वानों की मांग के चलते भारत सरकार का यह निर्णय शासन की सक्रियता और सामाजिक न्याय के प्रयासों पर एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव छोड़ सकता हैं।

भारत में अगर जाति आधारित जनगणना की बात करें तो जाति से जुड़े आँकड़े सबसे पहले ब्रिटिश शासन के दौरान 1871 में नियमित जनगणना के दौरान एकत्र किए गए थे। यह प्रक्रिया 1931 तक नियमित रूप से जारी रही। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941 की जनगणना में जाति आधारित आँकड़े आंशिक रूप से ही एकत्र किये गये थे। हर्बर्ट रिस्ले के अनुसार “1901 की जनगणना में भारतीय समाज को जाति और नस्ल के आधार पर वर्गीकृत किया गया, जिससे सामाजिक रूढ़िवादिता को बल मिला और आधिकारिक अभिलेखों में जातिगत पहचान मजबूत हुई।” अगर स्वतंत्र भारत में जाति आधारित जनगणना की बात करें तो 1951 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नव स्वतंत्र भारतीय सरकार ने सामाजिक विभाजन और सामाजिक रूढ़िवादिता से बचने के लिए जाति जनगणना को बंद कर दिया था। इस दौरान केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आँकड़े ही एकत्र किए गए थे। जबकि, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए कोई व्यापक डाटा एकत्र नहीं किया गया था। भारत सरकार ने जनगणना (एसईसीसी) करने का एक और प्रयास किया था, जिसका आधार जाति का डाटा एकत्र करना था, लेकिन उस समय की सरकार ने इसे तमाम विसंगतियों के चलते प्रकाशित नहीं किया था।

देश में जाति आधारित सर्वेक्षण की मांग काफी लंबे समय से की जा रही थी, जिन्हें संज्ञान में लेते हुये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने समाज और देश के उन तमाम पिछड़े वर्गों के विकास और उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के सही आँकड़े एकत्र करने के लिये जाति जनगणना का अहम फैसला लिया है। जातिगत जनगणना की मांग सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे के रूप में उठाई जा रही थी। सरकार द्वारा इस जनगणना की घोषणा से उसके चुनावी उद्घोष “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” की झलक साफ देखी जा सकती है। हाल के वर्षों की बात करें तो जाति आधारित जनगणना, बिहार सरकार ने 2023 में करायी थी और जाति आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसके बाद यह मांग पूरे देश में तेज हो गई कि जब बिहार राज्य की सरकार जाति आधारित जनगणना करा सकती है तो केंद्र सरकार क्यों नहीं। इसके बाद कर्नाटक सर्वेक्षण, जिसे 2015 में सामाजिक आर्थिक और शिक्षा सर्वेक्षण के रूप में शुरू किया गया था, विलंब के बाद 2025 में पूरा हुआ और जारी किया गया। इसी तरह तेलंगाना का सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक, रोजगार, राजनीतिक और जातिगत सर्वेक्षण केवल 50 दिनों में पूरा हो गया, जिसमें लगभग 97% आबादी को शामिल किया गया। अब सवाल यह उठता है कि जाति आधारित जनगणना क्यों जरूरी है और उससे समाज को क्या लाभ होगा और देश के विकास में इसकी क्या भूमिका होगी?

सामाजिक न्यायः जाति आधारित जानकारी से समाज के पिछड़े वर्गों की सटीक पहचान की जा सकती है, जिससे सरकार को आरक्षण नीतियों और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावी बनाने में मदद मिल सकती है।
नीति निर्माण: यह सर्वेक्षण केंद्र सरकार को विभिन्न जातियों की आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति के बारे में सटीक जानकारी प्रदान करेगा। इसका लाभ यह होगा कि किसी विशेष उद्देश्य, समूह या मुद्दे को ध्यान में रखते हुए और उनको लक्षित करते हुये नीतियों को लागू किया जा सकता है। लक्षित नीतियाँ बहुत विशिष्ट, केंद्रित और प्रभावी होती हैं।
सामाजिक समानताः संविधान के अनुच्छेद 15, 16 एवं 46 समानता को बढ़ावा देने में सहयता करते हैं, इसके आधार पर जातिगत आकड़ों का उपयोग पिछड़े समूहों के लिए विशेष कार्यक्रम बनाने के लिए किया जा सकता है, जो सामाजिक असमानता को कम करने में सहायक हो सकता है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्वः जब भारत में राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो यह आरोप लगाया जाता है कि समाज के एक बड़े हिस्से का राजनीतिक रूप से प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। जाति आधारित जनगणना राजनीतिक नीतियों और निर्णयों में अधिक पारदर्शिता ला सकती है जो पिछड़े वर्गों को सशक्त करेगा।
आर्थिक विकासः किसी भी देश के विकास के लिए, समाज का आर्थिक विकास बहुत महत्वपूर्ण है। यह सर्वेक्षण भारत में पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार के लिए संसाधनों के समान वितरण को सक्षम कर सकता है, जो भविष्य में समग्र आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है। जाति आधारित जनगणना से प्राप्त आंकड़ों से ओबीसी समुदाय की सही संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने में मदद मिलेगी, जिससे सरकार को इन समुदायों के लिए अधिक प्रभावी नीतियां बनाने में मदद मिल सकती है।

भारत सरकार की जाति आधारित जनगणना पहल ने सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्गों के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया है। इस सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़े आरक्षण नीतियों और कल्याणकारी योजनाओं का पुनर्मूल्यांकन करने का अवसर प्रदान करेंगे। जाति आधारित गणना के द्वारा सामाजिक परिवर्तनों, जैसे- अंतर जातीय विवाह एवं शहरीकरण का विश्लेषण करने में मदद संभव है। जाति-आधारित आरक्षण और लाभों को समझने में और दावों से संबंधित कानूनी व सामाजिक विवादों को सुलझाने में सहायता प्राप्त हो सकेगी। इसी के साथ शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए संसाधन के आवंटन में सुधार करना संभव होगा। जाति-आधारित गणना से गरीबी, बेरोजगारी एवं शैक्षिक स्तर का विश्लेषण किया जा सकता है l जाति आधारित जनगणना कराने का निर्णय भारत की अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा l केंद्र सरकार का यह एक सकरात्मक निर्णय सामाजिक न्याय, नीति निर्माण, सामाजिक समानता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आर्थिक विकास पर आंकड़े एकत्र करके परियोजनाओं के निर्माण और उनके क्रियान्वयन की सुविधा प्रदान करेगा। इमानदारी और सावधानी के साथ इन आकड़ों द्वारा संचालित दृष्टिकोण को अपनाकर, सरकार संरचनात्मक असमानताओ को खत्म करने और एक ऐसे देश के निर्माण की और बढ़ सकती है, जहां समाज का हर नागरिक देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

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Author: ntuser1

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