पटना: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नजदीक आते ही राज्य का राजनीतिक माहौल बेहद गर्म होता जा रहा है। चुनावी तैयारियों के साथ ही जनता के बीच उम्मीदों और असंतोष का मिश्रण देखने को मिल रहा है। यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि शासन, न्याय और विकास पर जनमत का निर्णायक परीक्षण साबित हो सकता है।
सबसे ज्यादा चर्चा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर है, जिसमें लगभग 38 लाख मतदाताओं के नाम काट दिए गए हैं। इसमें महिलाओं की संख्या पुरुषों से कहीं अधिक है—22.7 लाख महिलाएँ और 15.5 लाख पुरुष। इससे निष्पक्षता और समावेशिता पर गंभीर सवाल उठे हैं। राजनीतिक दल इसे लोकतांत्रिक अधिकारों से समझौता बता रहे हैं।
बिहार में बेरोजगारी और प्रवास का मुद्दा हमेशा की तरह प्रमुख बना हुआ है। रोजगार के सीमित अवसरों के कारण राज्य के लाखों युवा रोज़गार की तलाश में अन्य राज्यों का रुख कर रहे हैं। सरकार के रोजगार सृजन के दावों के बावजूद ज़मीनी हकीकत में बहुत बदलाव नहीं दिखता, जिससे युवाओं में निराशा बढ़ रही है।
इसके साथ ही जाति आधारित राजनीति और सामाजिक न्याय का मुद्दा भी केंद्र में है। नई जाति जनगणना की मांग ने एक बार फिर से जातिगत समीकरणों को हवा दी है। जहां एक वर्ग इसे सामाजिक समानता का जरिया मानता है, वहीं कुछ इसे विभाजनकारी राजनीति का प्रतीक बता रहे हैं।
शासन की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। पुलों के ध्वस्त होने और बार-बार होने वाले पेपर लीक जैसी घटनाओं ने प्रशासनिक कमजोरी और भ्रष्टाचार को उजागर किया है। महिला मतदाताओं की संख्या में कमी ने चुनावी विमर्श को और जटिल बना दिया है।
