लखनऊ, उत्तर प्रदेश – बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की “एकला चलो” की नीति पार्टी के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी कर सकती है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन न करने का फैसला किया है, जो पार्टी के लिए मुश्किलों का सबब बन सकता है। हाल ही में हरियाणा चुनाव में करारी हार ने बसपा के इस फैसले पर सवाल खड़े कर दिए हैं, और सियासी जानकार हैरत में हैं कि यह निर्णय पार्टी के लिए कितना फायदेमंद होगा।
पिछले चुनावों में गठबंधन की कमी से नुकसान
बसपा ने 2012 के बाद से तीन बार अकेले चुनाव लड़ा, जिसमें उसे भारी पराजय का सामना करना पड़ा। 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अकेले चुनाव लड़कर 80 सीटें जीतीं, लेकिन सत्ता से बाहर हो गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने अकेले दम पर मैदान में उतरने का निर्णय लिया, लेकिन उसका कोई भी उम्मीदवार सांसद नहीं बन सका। इसके विपरीत, 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा के 20 सांसद जीते थे।
2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा को फिर से बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, जब पार्टी के केवल 19 विधायक विधानसभा तक पहुंच सके। हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन करके लड़ने से बसपा को फायदा हुआ और उसकी सीटें शून्य से बढ़कर 10 हो गईं। इसके बावजूद, बसपा ने सपा के साथ गठबंधन को तोड़ दिया, यह आरोप लगाते हुए कि सपा का वोट ट्रांसफर नहीं हुआ।
2022 में फिर से अकेले चुनाव लड़ने का नुकसान
2022 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया, जिससे पार्टी को केवल 12.83 प्रतिशत वोट मिले और एक ही प्रत्याशी विधानसभा पहुंच पाया। इस नुकसान के बाद सियासी विश्लेषक सवाल उठा रहे हैं कि बसपा अपने जनाधार को कैसे बढ़ाएगी, खासकर ऐसे समय में जब अन्य दल गठबंधन की राजनीति को अपनाकर चुनावी सफलता प्राप्त कर रहे हैं।
हरियाणा चुनाव में भी निराशा
हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी बसपा को निराशा हाथ लगी। मायावती ने हरियाणा में बसपा के नेशनल कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद को फ्री हैंड दिया, लेकिन पार्टी का प्रदर्शन उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहा। इस हार के बाद बसपा के ‘एकला चलो’ फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत महसूस हो रही है।
आगे की चुनौतियां
बसपा के इस निर्णय के बाद अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि पार्टी किस तरह से अपने जनाधार को फिर से मजबूत करेगी। दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर आक्रामक रुख अपनाने के बावजूद, पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। अब बसपा के सामने चुनौती है कि वह किस तरह से जनता का भरोसा जीत पाएगी, खासकर तब जब गठबंधन की राजनीति का दौर लगातार बढ़ रहा है।
सियासी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बसपा ने गठबंधन के रास्ते पर विचार नहीं किया, तो पार्टी को आने वाले चुनावों में भी कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है
उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव: भाजपा पिछड़े और दलित चेहरों पर दांव लगाने की तैयारी
कानपुर में भीषण सड़क हादसा: चार बच्चों समेत पांच की दर्दनाक मौत

Author: Sweta Sharma
I am Sweta Sharma, a dedicated reporter and content writer, specializes in uncovering truths and crafting compelling news, interviews, and features.