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यह समय जागने का है वरना बहुत देर हो जाएगी

यह समय जागने का है वरना बहुत देर हो जाएगी

अरविंद कांत त्रिपाठी
(मान्यताप्राप्त, स्वतंत्र पत्रकार)

“जनरेशन Z या जेन जी” (एक निश्चित आयु वर्ग का युवा समूह। इसी आयु वर्ग के युवाओं को नेपाल में तख्ता पलट का जिम्मेदार माना गया है) से लोकतंत्र और संविधान बचाने को सड़कों पर उतरने की अपील करके उस असफल व्यक्ति ने एकबार फिर अपने बौद्धिक दिवालियापन का सबूत दिया है। उसे नहीं पता कि जिस “जेन जी” (युवा शक्ति) से वह सड़क पर उतरने की अपील कर रहा है, उसीने वर्ष 2014 के बाद से उसके दल को सड़क पर उतरने लायक भी नहीं छोड़ा है।
विदेशी संस्कारों में पले-बढ़े इस भलेमानुष को भारतीय संविधान का ज्ञान होता तो जान पाता कि वह संविधान में उल्लिखित गणतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि वंशवादी (राजतंत्रीय) मूल्यों की हिफाजत के लिए लड़ रहा है।
उसे जानना होगा कि, भारतीय संविधान की “आत्मा” उसकी प्रस्तावना में निहित है और प्रस्तावना (भावनाओं) का अनादर ही संविधान की हत्या है। (यहां बात 1975 के बहुचर्चित आपातकाल की नहीं होगी।) यह भी जानना होगा कि, प्रस्तावना का मसौदा स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने तैयारकर 13 दिसंबर 1946 को संविधानसभा में पेश किया था। जिसे 22 जनवरी 1947 को स्वीकार किया गया।
प्रस्तावना की पंक्तियां हैं – ” हम, भारत के लोग, भारत को एक प्रभुत्व संपन्न…. लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने,….. स्थिति और अवसर की समानता ;….. राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए ;… इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान शिल्पी बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधानसभा में चेतावनीभरे शब्दों में भाषण देते हुए कहा था – मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, वह खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों ना हो यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, वे अच्छे हों तो, संविधान अच्छा सिद्ध होगा।… संवैधानिक अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) का संचालन लोगों तथा राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है। कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? जातियां तथा संप्रदायों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा, विभिन्न तथा परस्पर विरोधी विचारधारा रखने वाले राजनीतिक दल बन जाएंगे।….

अगले दिन 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में कहा – यदि चुनकर आने वाले लोग, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वह दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों तथा देशहित को सर्वोपरि रखें।… इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले ऐसे लोगों की जरूरत है जो छोटे-छोटे समूह तथा क्षेत्र के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और पूर्वाग्रह से ऊपर उठ सकें।…
राजनीतिक मनीषियों के उक्त संबोधनों से स्पष्ट है कि, भारतीय संविधान तभी तक स्वस्थ, सुरक्षित और मर्यादित है जब तक उसके उद्देश्य धरातल पर सुरक्षित और मर्यादित हैं।

संविधान बचाने के नाम पर जनता को गफलत में झोंकने की जालसाजी का खुलासा राजनीतिक दलों के आचरण को प्रस्तावना की कसौटी पर कसने से हो जाएगा। प्रस्तावना की प्रथम पंक्ति में है – “हम, भारत के लोग, भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने”…। गणराज्य का अर्थ है, भारतीय शासन का शीर्ष पद (राष्ट्रपति) वंशानुगत (राजतंत्रात्मक) नहीं होगा। अर्थात “राजा का बेटा राजा” नहीं होगा। ध्यान रहे, गणतंत्र का यह विधान (संदेश) अनिवार्य रूप से राजनीतिक दलों के लिए भी है क्योंकि राजनीतिक दल ही प्रजातंत्र की रीढ़ हैं। राजनीतिक दलों का चरित्र ही वह नर्सरी है, जहां संवैधानिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों की खेती होती है।
अपनी स्थापना (1885) से लेकर 1947 तक (यद्यपि तब भारतीय संविधान नहीं था फिर भी) राष्ट्रप्रेम एवं प्रजातांत्रिक तबियत से परिपूर्ण कांग्रेस ने सिर्फ योग्यता और दक्षता को पैमाना बनाकर, अपने कुल 58 अध्यक्षों को चुनते हुए प्रजातांत्रिक एवं गणतांत्रिक मूल्यों का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया था। आजादी के बाद का दृश्य जगजाहिर है।
देखते ही देखते कांग्रेसी दिनचर्या में सर्वोच्च हैसियत वाला एक नया शब्द “आलाकमान” अनिवार्यरूप से जुड़ गया। अब “आलाकमान” का जायगान करने वाली चारणमंडलियों के पुरस्कृत होने और आलाकमान से वैचारिक भिन्नता रखने वाले “जननेताओं” को हाशिए पर या पार्टी से बाहर किए जाने की परम्परा स्थापित हो गई। पार्टी का लोकतंत्र और गणतंत्र कागजों पर हांफने लगा, राजा (आलाकमान) का आदेश ही सर्वोपरि न्याय हो गया। “राज परिवार का कुमार” होने के नाते पार्टी का “बेताज बादशाह” इस सत्य को नकार सकता है क्या? वह, किस संविधान और गणतंत्र को बचाने की बात कर रहा है? बताना चाहिए।
प्रस्तावना में ही लिखा है – “अवसर की समानता”। समानता के आधार पर, आलाकमान से अलग अपने स्वतंत्र विचारों को स्थापित करने के प्रयास में हाशिए पर किए गए उच्चशिक्षित व सुयोग्य नेता शशि थरूर पार्टी से निकाले गए दर्जनों नेताओं की एक ताजा कड़ी मात्र हैं। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि, ऐसे निरंकुश आलाकमान की चौखट पर नतमस्तक कांग्रेस, प्रजातंत्र की रक्षा को निकली है।
ध्यान रहे, आलाकमान वाली कमोबेश यही स्थिति हर दल की है। फर्क बस इतना है, कहीं सिर्फ अपने परिवार के ही दो-तीन लोग आलाकमान के राजसी समूह में शामिल हैं तो कहीं अलग-अलग दो-तीन लोग ही पूरे संसदीय दल के रूप में काबिज हैं। जिसे संसदीय दल कहा जाता है वस्तुतः वह संसदीय दल का आभास भर होता है क्योंकि वहां भी शीर्ष दो-तीन लोगों की ही चलती है। जो उनके मनमुताबिक नहीं हैं, वह योग्य व कर्मठ होते हुए भी उपेक्षित रखा जाता है। (बात नितिन गडकरी आदि की नहीं हो रही है।) एक अंतर यह भी है कि संसदीय बोर्ड में स्थानांतरण के साथ हैसियत बदलती रहती है। आज का सर्वशक्तिमान व्यक्ति, कल इच्छा न रहते हुए भी मार्गदर्शक-मंडल में भेज दिया जाता है। जहां वह वृद्धाश्रम वाली अनुभूति लेता है। लेकिन वंशवादी दलों में अपने पिता को गद्दी से हटाकर उस पर खुद बैठने के एकमात्र उदाहरण को छोड़कर अन्य उदाहरण संतोषजनक रहे हैं। यहां आलाकमान के खाली पद को पारिवारिक सदस्य ही भर सकता है।
अब तक समझ में आ गया होगा कि, सभी राजनीतिक दल गणतांत्रिक और प्रजातांत्रिक मर्यादाओं की रक्षा कर रहे हैं या चकल्लस।
अब संविधान सुरक्षा में जनता का पहलू।…25 नवंबर 1949 को डॉ. अंबेडकर ने कहा था – उन्हें नहीं पता कि भविष्य में भारत के लोगों तथा उनके राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? उन्हें नहीं पता था कि भावी भारत के नेता “इंद्र” जैसा वैभव भोगेंगे और 80 करोड़ गरीब भारत, उनके द्वारा खैरात में दिए जाने वाले मुफ्त अनाज पर पलेगा।…. बाबा साहेब को नहीं पता था कि – जात-पात, पंथ और संप्रदाय को छोड़कर शोषणकारी, भ्रष्ट, लुटेरे और हत्यारे अंग्रेजों से लोहा लेने वाले पूर्वजों की औलादें, एक दिन जात-पात, पंथ और संप्रदाय के उन्माद में भ्रष्ट, लुटेरे बलात्कारी और हत्यारे को अपना नायक चुनकर, उनके हाथों में अपना सारा भविष्य सौंपते हुए, “मेरा भारत महान” का राग अलापेगी।
धरातल की इन सच्चाइयों के साथ, संविधान की रक्षा करते-करते अब बात देश को फूंकने के लिए “जेन Z” को उकसाने तक पहुंच चुकी है। देश को बचाने का यह नाजुक समय भारतवासियों की अभिव्यक्ति का है अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।

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Author: ntuser1

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